आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Saturday, May 3, 2014

स्मृति - तंत्री (1982)

स्मृतियों की तंत्री ऐसे छेड़ गया कोई अनजाने,
प्रतिपल रागी मन की पीड़ा सरगम - सी बजती रहती है।

आरोहों के साथ ढुलककर आँसू पलकों पर आते हैं
अवरोहों के बीच सहमकर दृग - कोरों में छुप जाते हैं,
रह - रहकर भावों की सरिता उर में उथल - पुथल कर जाती,
विरही अनुभावों की पीड़ा सारे तन - मन में भर जाती,

बीच भँवर में टूटी नौका और साथ जर्जर पतवारें,
उस पर लहरों की निर्ममता प्रतिपल ही बढ़ती रहती है।।

सूर्य प्रतीची में छिपते ही आसमान अरुणिम हो जाता,
खग - वृंदों की गेह - वापसी के कलरव से मन अकुलाता,
फिर गहराती निशा, निराशा को अपनी आभा से हरता,
चाँद निकलता है प्राची से मन को अनुरागों से भरता,

चपल चाँदनी चारु द्रुमों से छन - छनकर जब भू पर बिखरे,
मेरी उर्मिल अभिलाषा की डोली भी सजती रहती है।।

चाहे दु:ख दे, चाहे सुख दे, स्मृति - राग बहुत भाता है,
मन की गहराई तक जाकर कोना-कोना छू आता है,
क्षणिक भरोसा, छोटी आशा, भले क्षणिक इसकी स्वर - लहरी,
किन्तु सतत इसका आवर्तन, इसकी टीस बड़ी ही गहरी,

चूम - चूम स्मृति के पन्ने रागी मन जब इठलाता है,

झूम - झूमकर प्रेम - कहानी तन की गति कहती रहती है।।

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