आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Saturday, May 3, 2014

कोयला (2005)

कोयला काला होता है
लेकिन जलने पर
लाल अंगारा बन जाता है
कोयला नहीं ले सकता कोई अन्य रूप
जलने पर दहकती आग में बदल जाना ही
कोयले की नियति होती है।
               
जिस ज़मीन में कोयला होता है
वहाँ अक्सर फसलें नहीं होतीं
चूँकि फसलें नहीं होतीं
इसलिए पेट जब भूख से जलता है
तो कोयला उगलने वाली ज़मीन
चारों तरफ अंगारे ही तो उगलेगी।

पेट भरने के लिए
कोयला खोदने वाला हो
या अवैध खदानों से मनों कोयला निकालकर
साइकिल पर ठेलकर ले जाने वाला
वह प्राय: कोयला नहीं अंगारे ही तो बेंचता है।

भूख की आग में जलकर
लाल होकर सुलगते अंगारे
कभी - कभी कहर बनकर टूट पड़ते हैं उन पर
जो अक्सर सुलगाते रहते हैं
पेट की भूख को
जिनके खुद के सुख - चैन और स्वार्थ के आगे
कोई मतलब नहीं होता

भूख से किसी पेट के जलने का।

ठंडे कोयले में नहीं होती
मिट्टी जैसी कोई जीवन - प्रदायिनी शक्ति
लेकिन अंगारे - सा दहकता कोयला
पल भर में पिघला सकता है
धरती की कठोरतम धातुओं को भी
वह भाप बनाकर शून्य में उड़ा सकता है

सदियों के शोषण के दर्प से उफनाते रत्नाकरों को।

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