आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Saturday, May 3, 2014

मेरे भीतर एक नदी (2005)

कविता मेरे भीतर
एक नदी की तरह रहती है
नदी जो भीतर ही भीतर उमड़ती - घुमड़ती है
कभी - कभी उफनाकर कुछ कहती है
तट - बंधों को धकिया-धकियाकर
खेतों - मैदानों, गाँवों व शहरों को निगलती है
सारी गलन - सड़न समेटकर
यह नदी शांत हो जाने पर
फिर से सिकुड़ जाती है चुपचाप
और मेरे मन के भावों के साथ एकाकार होकर
लगातार मेरे भीतर बहती है।

पानीदार हों या मर चुका हो जिनकी आँख का पानी
खुद्दार हों या वक़्त के थपेड़ों ने झुका दी हो जिनकी रीढ़
भरे पेट वाले हों या मोहताज़ हों जो भरने को पेट
घर - बार वाले हों या काटते हों जीवन जो फुटपाथ पर
सब डूबते - उतराते हैं मेरे भीतर की इस नदी में
अपनी - अपनी संवेदनाओं के साथ
और इन सबको अपने प्रवाह में समेट लेने पर
उफनाकर बहती है मेरी कविता की नदी
वह इन सबकी कहानियाँ लगातार कहती ही रहती है।

समय की गरमी जब कभी सुखा भी देती है इसे
तब भी महसूस करता हूँ कि
यह नदी मेरे भीतर बनी रहती है
संवेदनाओं के भाप बनकर उड़ जाने
मनोवेगों के जड़ हो जाने पर भी
पुनर्प्रवाहित होने की छटपटाहट लिए
यह किसी कोने में छिपी रहती है
अदृश्य हो जाने पर भी
दिखाई पड़ती रहती है यह किसी न किसी रूप में
और हवा में तिरते - तिरते कभी अचानक ही घनीभूत हो
गरज - गरजकर बरसने लगती है चारों तरफ से
ऐसे में सरसता की धाराओं को समेटकर
वंचना के आक्रोश को निगलती - निवारती
यह नदी फिर से कुछ कहने लगती है
और मेरे भीतर एक बार फिर से बहने लगती है।

कभी - कभार मेरे भीतर समा नहीं पाती यह नदी
ऐसे में यह फूट - फूटकर मेरी आँखों से रिसती है
इस रिसाव से कम नहीं होता विस्तार इसका
और जब यह इस प्रकार से रिसती है
तो प्राय: कुछ नहीं कहती
पर जब यह फिर से कुछ कहना चालू करती है
तब रिसना बन्द कर देती है,
सहानुभूति बाँटती हुई यह नदी
कभी लाचार नहीं होती
और भटक जाने पर
खुद अपना रास्ता बनाती हुई यह नदी
हमेशा भीतर से बाहर तक मेरी अगुवाई करती है।

बहते - बहते कभी - कभी चट्टानों से टकराकर
छितरा जाती है यह नदी
और कभी - कभी मजबूत बंधनों में फँसकर
मनचाहा कहने से कतरा जाती है नदी
कभी - कभी सांकेतिक रूप से ही कुछ कहती
तो कभी चुप भी बनी रहती है
मगर जब भी यह अपनी चुप्पी तोड़ती है
तो विप्लवकारी हो जाती है नदी
और घर की, समाज की, परम्परा की, मान्यता की,
हर अनचाही दीवार को ढहाकर आगे बढ़ती
ठहराव को सहेजकर पीछे छोड़ती
ऊँचाइयों पर उछलकर दौड़ पड़ती
मेरे भीतर प्रवाहित हो रही कविता की यह नदी
नित्य ही संचार के नए विधान गढ़ती है।

कभी - कभी तिलमिलाकर दहकती है कविता
ऐसे में वह मेरे भीतर की नदी में लावा बनकर बहती है
फिर अचानक फूटकर ज्वालामुखी जैसी उमड़ती है
और सच्चाई की आग का दरिया बनकर
उफनाकर बाहर निकलती है
नंगा करते हुए स्वार्थ के रावण को
हर आततायी की लंका का दहन करती है
वक़्त के साथ - साथ भले ही ठंडी पड़ जाय यह नदी  
पर चारों ओर बिखरी पड़ी इसकी राख
अन्तर्संघर्षों के विस्तार की याद दिलाती ही रहती है
प्राय: मेरे भीतर कविता की यह नदी
गरम ख़ून में मिलकर
कोश - कोशान्तर तक व्याप्त होकर बहती है।

मैं जानता हूँ कि मेरी ही तरह
तुम्हारे भीतर भी बहती है ऐसी ही एक नदी
यह अलग बात है कि
वह मेरी नदी की तरह उफनाकर कभी कुछ नहीं कहती
भले ही ऐसा लगता हो औरों को
कि वह फूटकर मेरी आँखों की राह कभी नहीं रिसती
लेकिन मेरी नदी जब लावा बनकर
तुम्हारी नदी के संपर्क में आती है
तो तुम्हारे भीतर की नदी भी
आग का दरिया बनकर दहकती है
जब - जब तुम्हारी नदी मेरी नदी की बात सुनती - समझती है
तब - तब दोनों नदियों के दोआब में

परिवर्तन की एक नायाब संस्कृति पनपती है।

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