आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Saturday, May 3, 2014

शीला भयाक्रांत है (2007)

शीला झारखंड से दिल्ली आई है
वहाँ पलामू के एक वन्य गाँव में
उसका छोटा - सा घर है
घर में माँ - बाप हैं
भाई है, बहने हैं
घर की दीवारों पर
उसके द्वारा माँ के साथ मिलकर बनाई गई
जनजातीय कलाकृतियाँ हैं
बाहर वन में उन्मुक्त विचरण करता
उसका बचपन है
और भी बहुत कुछ है
उसको प्यारा लगने वाला वहाँ
लेकिन सरकारी व्यवस्थाओं में जकड़ा जंगल
रोटी नहीं देता उन्हें अब
इसीलिए अपने परिवार का
एक नया भविष्य तलाशने
झारखंड से दिल्ली चली आई है शीला।

शीला को नहीं पता था कि
अपने बचपन को पीछे गाँव में छोड़
जिस तरुणाई को सहेजकर
वह दिल्ली ले आई है
उसकी कैसी लूट होती है यहाँ
उसके गाँव का रहने वाला वह एजेन्ट भी
जो लेकर आया था उसे यहाँ
माँ - बाप को अच्छे प्लेसमेन्ट के ढेरों भरोसे दिलाकर
नहीं निकला था बिल्कुल भी भरोसेमंद।

दिल्ली के इस जंगल में
अब अकेले भटक रही है शीला
किसी अच्छी मालकिन की तलाश में
जिसके घर के झाड़ू - बरतन में पूरी हो सकें
उसके माँ-बाप की अपेक्षाएँ
और पा सके वह भी
दिल्ली में अमूमन न मिलने वाला एक ऐसा ठौर
जहाँ महफूज़ रख सके वह अपनी तरुणाई
जहाँ न देनी पड़े उसे पुलिस को
अपने साथ हुए बलात्कार की वह तहरीरें
जिन पर अँगूठे तो उसके जैसे अनपढ़ों के होते हैं
पर शब्द किसी और के
जहाँ न देनी पड़े सफाई उसे
बलात्कारियों द्वारा लगाए गए
चोरी के झूठे प्रत्यारोपों की।

शीला को डर लगता है
उन कचेहरियों में जाने से
जहाँ पुलिस अक्सर ले जाती है
बलात्कार की शिकार हुई
दिल्ली की दूसरी झारखंडी लड़कियों को
उसे डर लगता है
कोर्ट के अहलमदों व वकीलों की चुभती नज़रों से
और सबसे ज्यादा तो उस नारी - निकेतन के वार्डन से
जहाँ भेज देती है अदालत
उन पीड़ित व बेसहारा लड़कियों को
अपनी पीड़ा के अहसास से छुटकारा पाने के लिए,
ताजा पीड़ा के आगे
पहले की पीड़ाएँ भूल जो जाता है इनसान।

शीला यह भी नहीं चाहती कि
माँ - बाप का विश्वास ही भंग हो जाए
उसकी इस दिल्ली के प्रति
और वे आकर ले जाएँ उसे
दूसरी पीड़ित लड़कियों की तरह
वापस अपने गाँव
जहाँ वह मरने से भी बदतर तरीके से जिए
रात - दिन ताने सुन - सुनकर।

शीला भयाक्रांत है
दिल्ली के इस बियाबान में
क्योंकि वह अपनी तरुणाई लुटाकर नहीं भरना चाहती
अपना और अपने परिवार का पेट
पर शीला को नहीं मालूम कि
कब तक सुरक्षित रह सकेगी वह
दिल्ली के इन दरिन्दों के बीच।

(2007)

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