आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, May 4, 2014

टूटी कमर (2008)

मत लादो मेरी टूटी कमर पर
अब इतना सारा बोझ
बात मेरे उफ्फ़ करने की नहीं है,
कमर के टूट जाने पर
दर्द से मेरे बिलबिलाने की भी नहीं है,
बात प्रतिरोध में मुट्ठियाँ भींचकर
मेरे उठ खड़े होने की भी नहीं है,
बात तो बस यह समझ जाने की है कि
मेरी पीड़ा के बारे में
तुम्हारी खुद की समझ कितनी है
यह मैं अब अच्छी तरह जान चुका हूँ।

माना कि बोझ डालना तुम्हारी आदत है
और बोझ सँभालना मेरी नियति
लेकिन फर्क तो समझना ही होगा तुम्हें
कमर की लोच और टूटकर लटकी हुई कमर के बीच का
बात दु:खती कमर पर दर्द - निवारक मरहम लगाने की नहीं है
बात उसकी मालिश कर उसे सीधा करने की भी नहीं है
बात तो कमर को कमर ही बने रहने देने की है
ताकि आगे भी सँभालती रह सके वह नए - नए बोझ।

बात जब जरूरी समझ होने की हो रही हो
तब अक्सर यह लगने लगता है कि
जैसे ज़िद ठान रखी हो तुमने
नासमझ ही बने रहने की
और बस इसी वजह से बढ़ने लगता है
इस बात का ख़तरा कि
अपने भूखे पेट की परवाह किए बिना
कहीं किसी दिन कोई टूटी कमर वाला
तुम्हारी कमर भी तोड़ देने पर न आमादा हो जाय।

भले ही प्रतिरोध में कोई
तुम्हारी कमर तोड़ पाए या नहीं
किन्तु उसे तोड़ने की एक कोशिश करके
वह दुनिया को इतना तो समझा ही सकेगा कि
अपने स्वार्थ व नासमझी के चलते

उस बेचारे की कमर तुमने ही तोड़ी है।

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