आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, May 4, 2014

चींटियाँ (2008)

चींटियों की चाल भले लगती हो धीमी
पर अपनी लगन से वे चढ़ जाती हैं
सीधी - सपाट घर की दीवारें
लम्बे - तने पेड़,
ऊँचे टीले व पहाड़,
घुस जाती हैं वे
गहरे छिद्रों, सुरंगों व कन्दराओं में भी
चींटियाँ अपने संदर्भ में दिखती हैं मुझे
समुद्र लांघ गए
हनुमान से भी ज्यादा श्रमशील व हिम्मती।

चींटियों का एक कतार में चलना
रास्ते में अवरोध रखते ही
घूमकर निकल जाना अपने लक्ष्य की ओर
खुद के शरीर से भी ज्यादा वज़नदार
भोजन के टुकड़ों को पंजों में दाबकर
चढ़ जाना सारी ऊँचाइयाँ
पार कर जाना सारी गहराइयाँ भी
अद्भुत लगता है मुझे
विश्व की सबसे सुनियोजित सेनाओं को भी
मात देता हुआ - सा।

आज तक नहीं देखा मैंने
चींटियों का कोई भी प्रशिक्षण - केन्द्र
किसी ने नहीं लगाया कभी
उनके कौशल - विस्तार का कहीं कोई शिविर
स्वत: सीखती हैं चींटियाँ
टेढ़ी - मेढ़ी चालें और सम्पूर्ण प्रबन्धन
भले कितना ही कुचलें हम उन्हें अपने पैरों तले
ख़त्म नहीं की जा सकतीं वे इस धरती से
हमसे भी पहले उपजी हैं यहाँ पर और
और हमसे भी ज्यादा जीने में सक्षम हैं चींटियाँ।

झुंड के झुंड खेलती - खाती हैं चींटियाँ
खुशबू पा लक्ष्य की जाने कहाँ से पल भर में
झुंडों में चलकर आ जाती हैं चींटियाँ
जाति और धर्म की दीवारों में बाँधा नहीं अपने को
हरदम एक साथ हिल-मिलकर
जीने को आतुर रहती हैं चींटियाँ
अमीरी और गरीबी के पचड़े से दूर
'दूसरी गली वाला कुत्ता' की प्रवृत्ति से परे
चींटियाँ स्थापित हैं इस दुनिया में
उत्तम उदाहरण बनकर सामाजिक समरसता का,
क्या हम कुछ भी नहीं सीख सकते

चींटियों की इस अनुकरणीय जिन्दगी से!

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