आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Sunday, May 4, 2014

सुरक्षित भविष्य की बस्ती (2009)

चलो खोज लें हम भी
कोलम्बस की तरह एक नई दुनिया
अगर बचा हो कहीं एक टुकड़ा इस धरती का
जहाँ लगता हो कि बसाई जा सकती है
इन्सानों की एक नई बस्ती
वैसी नहीं, जैसी कि बसाई थी
कोलम्बस के साथ गए लोगों ने नई दुनिया में

जिन बस्तियों में आदमी का भविष्य
डायनासोरों की बस्ती से भी ज्यादा भयावह है,
जिन्होंने ख़तरे में डाल दिया है,
आदमी का ही नहीं,
इस समूची धरती का ही भविष्य,
जिनका अस्तित्व टिका है अब
बस उन्हीं इन्सानी बस्तियों के सहारे
जहाँ यूरोप के समुद्री यात्रियों के अनुयायी
नहीं जमा पाए अपने पाँव कभी,
उन स्वघाती बस्तियों के जैसी ही
एक और बस्ती बसाने का साहस दिखाने की
कोई आवश्यकता नहीं आज इस दुनिया में
                                                                                                                                                       
आज विडंबना तो इस बात की है कि
विकसित होने की अंधी दौड़ में शामिल होकर
बची - खुची इन्सानी बस्तियाँ भी खोने को तत्पर दिख रही हैं
अपनी जीवन - शैली की मौलिकता
और इस दुनिया को बचा लेने की अपनी नैसर्गिक शक्ति

फिर भी न जाने क्यों मुझे लगता है कि
अगर हम सब अभी भी मिल - जुलकर एक कोशिश करें तो
इन्हीं बची - खुची इन्सानी बस्तियों के बीच ही
खोज सकते हैं अपनी परिकल्पना की वह नई बस्ती
जहाँ लोगों के दिल तो होंगे लेकिन दिलों में दीवारें नहीं
सहूलियतें तो होंगीं,
लेकिन दूसरों से छीनकर जुटाई गई नहीं,
सुख के उपाय तो होंगें,
लेकिन प्रकृति को विनाश की ओर धकेलकर नहीं,
जहाँ नहीं मानेंगे हम अपने को महान कभी
दूसरों से जीने का हक छीनकर

चलो, अभी भी वक़्त है कि चेत जाएँ
और बिना चाँद, मंगल या दूसरे सौरमंडलों में गए
खोज लें हम इसी धरती पर
अपने सुरक्षित भविष्य की एक नई बस्ती
वैश्विक उष्मता के कारण उफनाए समुद्रों द्वारा
पृथ्वी को निगल लिए जाने अथवा
ओज़ोन - कवच से विहीन हो

धरती के कॉस्मिक किरणों की आँच में पिघल जाने के पहले ही।

No comments:

Post a Comment