आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, May 4, 2014

सहयात्री (2009)

हम भी सहयात्री हैं
उसी जलयान के
जिस पर सवार होकर करने चले हो तुम
विश्व की परिक्रमा,
गहरे समुद्र के बीच
डूबने का कोई अवसर आने पर
क्या भिन्न-भिन्न होंगे मित्र!
हमारी - तुम्हारी मृत्यु के अनुभव?

क्या हमारे अनुभवों की भिन्नता
सिर्फ़ इसलिए होगी कि
हम एक गरीब देश के हैं
खाते - पीते और बरबाद नहीं करते तुम्हारे जितना भोजन
और तुम एक सुविधा - सम्पन्न अमीर देश से हो
जहाँ हर सब्ज़ी, फल, फूल,
यहाँ तक कि इन्सानों का आकार भी होता है
हमारे देश की तुलना में बड़ा - बड़ा?

इस समुद्री यात्रा पर
निकले तो हैं हम
अपनी मित्रता की नई मिसालें गाँठने
पर पता नहीं मुझे कि
जहाज़ के डेक पर बैठकर
पानी के अपार विस्तार के आगे
शून्य में आँखें गाड़
धरती के जिस निरापद छोर को
मैं ढूँढ़ता रहता हूँ सुबह - शाम
उसी को तुम भी खोजते रहते हो या नहीं
या फिर मेरे साथ इस डेक पर बैठने के बावजूद
तुम्हारा मक़सद आज भी रहता है वही
ढूँढ़ना अपने लिए हमसे अलग एक नई दुनिया कोलम्बस की तरह!

हम आज भी
जीने के लिए मजबूर हैं
अपनी सदियों पुरानी बस्ती में
इतिहास की अनेकों उपपत्तियों के साथ
किन्तु तुमने तो अभी - अभी बसाई है
अटलांटिक पार की अपनी यह नई बस्ती!
अपने स्वार्थ में तुमने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा कि
तुम्हारी इस नई बस्ती के ऐशो - आराम की कीमत
कहीं कोई और तो नहीं चुका रहा इस धरती पर!
क्योटो, दोहा, जेनेवा आदि में हुई चर्चाओं के बाद के दौर की
तुम्हारी दलीलों को सुनकर तो
अब हमारा भरोसा ही उठता जा रहा है
तुम्हारी कही गई किसी भी बात पर से मित्र!

अपने तिज़ारती फायदों के लिए
खूब बाँध दिए हैं तुमने
हम जैसों के हाथ - पाँव
हम जैसे गरीबों की जेबों पर तो
बराबर कब्ज़ा जमाए रखना चाहते हो तुम
किन्तु अपने बाज़ार में किसी गरीब को
घुसने का मौका देना तक तुम्हें मंज़ूर नहीं
इस धरती को जगह - जगह से घाव देकर
अब उन्हें भरने वाले ग्राफ्ट भी
हम गरीबों की देह से ही काटकर निकालना चाहते हो तुम!

इसलिए आज
इस लंबी समुद्री यात्रा के दौर में
कैसे विश्वास करूँ कि
भुलाकर यह सारी आपाधापी
तुम भी सोचना शुरू कर दोगे हमारी ही तरह
इस समूची धरती के बारे में
हमारे मन से अपने मन को एकाकार करके!

मित्र (?)!
और भी बहुत से देशों के
सुविधा - सम्पन्न मित्रों के साथ
लंबी समुद्री यात्राएँ की हैं हमने
विजन महासागरों के बीच से गुजरते हुए
किन्तु उन यात्राओं के दौरान
संकट के किसी क्षण में
लड़खड़ाते हुए जहाज़ के डेक पर बैठकर
उन मित्रों की आँखों में आँखें डाल
मौत की भयावह आशंका का सामना करने के दौरान
हमेशा यह अहसास होता रहता था कि
कि यदि मौत सचमुच ही आ गई हमें निगलने तो
उसके भी सहयात्री बन जाएँगे हम साहस के साथ
अंतिम क्षणों तक एक - दूसरे को बचाने का संघर्ष करते हुए!

वैसा ही कोई भरोसा
इस समुद्री यात्रा के कठिन दौर में
तुम्हारे प्रति क्यों नहीं पैदा होता मेरे मन में

वाशिंगटन से जलयान पर आए मेरे प्रिय सहयात्री?

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