आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, May 4, 2014

संकल्प (2009)

पानी ही पानी,
बरसात में उफनाई
भरत नदी में
दूर - दूर तक दिखता है
अथाह पानी,
दूर किनारों पर
नारियल - वृक्षों के ऊँचे झुरमुट
पानी के इसी विस्तार में
समा जाने को लगते आतुर,
आकाश में छाए काले बादल
बरस रहे हहराकर,
धरती से अंबर तक गहराता अँधियारा,
रहस्यमयी धुंध है फुहारों की,
कुछ - कुछ डरावना - सा लगता मौसम।

फिर भी वे देखो,
दो मछुआरे छतरी ताने
ऐसे बैठे हैं तने मूर्तिवत
लकड़ी की उस गंठी नाव में,
नदी की मंझधार में
निर्भीक भाव से जाल फेंकते,
जैसे निकले हों
मल्ल - युद्ध करने
प्रकृति की प्रतिकूलता से।

उनके नंगे बदन से
चुँचुँहाता पसीना
विचलित कर रहा हो जैसे
पानी के उस पूरे विस्तार को,
उनकी धमनियों में फड़कता रक्त जैसे
चुनौती दे रहा हो
नदी की उछलती - कूदती लहरों को।

भय नहीं किंचित उनको
नदी के तीव्र प्रवाह का,
घटाटोप आकाश का,
डरपाती वर्षा का,
हवा के तूफानी थपेड़ों का।

शायद ये मछुआरे

उस निर्भीकता के प्रतीक हैं
जो पैदा होती है
विकल परिवार का पेट पालने के लिये
करो या मरो का संकल्प ले लेने पर।

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