आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, May 4, 2014

नए-नवेले सपने (2011)

घने कुहासे में
सूरज भी नहीं उगता,
काली घटाएँ छाने पर
धूप भी नहीं खिल पाती,
ऐसे में दहलीज़ पर
रोशनी की एक किरण पाने के लिए,
आँगन में धूप का
एक कतरा सजाने के लिए,
कुहासे को किसी न किसी कोने से
छांटने की पहल तो करनी ही पड़ेगी।

अभेद्य बादलों के बीच से
सूरज की एक झलक पाने के लिए
आज फिर कवि दुष्यन्त की तरह
आसमान में सुराख़ बना देने वाला
कोई पत्थर तो जोर से उछालना ही होगा
वह भी इतनी हिम्मत से कि
जाग उठें जमींदोज़ महलों में सोए राजपुरुष,
अवाक रह जाएँ
किलों के भग्नावशेषों में भटकती
आततायी शहंशाहों की आत्माएँ
और सम्मोहक संगीत में तब्दील हो जाएँ
बेसुरे हो चुके सारे के सारे विप्लव - गान।
              
ट्यूनीशिया, मिश्र, यमन, बहरीन व लीबिया की
विक्षुब्ध अवामों ने अब जगा ही दिए हैं
विश्व भर के तानाशाहों के दिलों में ख़ौफ़ और
परिवर्तनकामी युवाओं की आँखों में

आज़ादी व इन्साफ़पसन्दी के नए - नवेले सपने।

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