आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, May 4, 2014

शिकारगाह में तब्दील गाँव (2011)

मेरे देखते ही देखते
पिछले पचास सालों में
एक अजीब सी शिकारगाह बन गया है हमारा गाँव
और हमारा ही गाँव क्यों
शायद ऐसी ही एक शिकारगाह में तब्दील हो चुके हैं
इस देश के कोने - कोने के तमाम छोटे - बड़े गाँव।

पहले आया वन - नशीकरण,
फिर वन - संरक्षण का बन्धन,
भा गया उदारीकरण खूब,
लूटा जिसने जो कुछ पाया,
फिर भूमंडलीकरण आया,
सस्ते में सबको निपटाया,
शहरों में माल खुले ऊँचे,
गाँवों में ई - चौपाल खुलीं,
चीनी बैटरी, दिए, झालर,
पिचकारी औ' मोबाइल फोन
गाँवों के नुक्कड़ तक छाए,
यह भी है कितनी अजब बात
बहुराष्ट्रीय भारत आए,
भारत वाले विदेश भागे,
पूँजी का आवागमन बढ़ा,
बिल्डर के हत्थे गाँव चढ़ा।

अब विकृतीकरण समाया है,
अनियंत्रित सबकी लिप्साएँ,
जिसकी मर्जी जो कुछ नोचे,
जीवन या मौत खुली बेंचे
मिट्टी, बालू, मौरंग, पत्थर
खोदें सपूत ही गाँवों के
बिजली, कोयला, तेंदू - पत्ता
सबकी चोरी अब जायज है।

सिर कटे गाँव, सब लुटे गाँव
जातीय तौर पर बँटे गाँव
छाती नुचवाए, ठगे गाँव
भू - स्वत्व लुटाए, बिके गाँव
हिंसा-प्रतिहिंसा में लिथड़े
थाने के द्वारे टिके गाँव
प्रतिबंधित दारू - द्रव्य - दवा में लिप्त
जवानी छिने गाँव,
इन विकृतियों से मुक्ति कहाँ
इन पर किसका है ध्यान यहाँ
सब तो अपने में मुखिया हैं
रोकें जो वे परधान कहाँ?

वन - नशीकरण या संरक्षण
मंडलीकरण या जातिवाद
हिन्दुत्ववाद या सेक्युलरिज्म
वैश्वीकृत अर्थ - व्यवस्था या
बहुराष्ट्रीय कंपनियों को
किस - किस को कोसा जाय आज
अब तो हम अपने ही दुश्मन
सब अपनी ही मजबूरी है
अपने ही तरकस - तीर यहाँ
अपनों की जेब में छूरी है
सब धार किए पैनी बैठे
देखें आगे क्या होता है?

पिछले पचास वर्षों से गाँव
निशाने पर रहा है सदा बाहरी शिकारियों के
लेकिन अब तो गाँव के भीतर ही तमाम निशानेबाज़ हैं
बलिहारी इन निशानेबाजों की,
अब कोई भी शिकार बचा रह ही नहीं सकता

घरेलू शिकारियों से पटी गाँवों की शिकारगाहों में।

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