आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Sunday, May 4, 2014

प्रतिरोध (2011)

घुप्प अँधेरा था
सूझता नहीं था हाथ को हाथ,
फिर भी धँसाता रहा वह
पैनी नोक वाला खंज़र
बड़ी ही सावधानी से
ठीक मेरे सीने के बीच,
दिखता नहीं था मुझे
बहता हुआ रक्त भी अपना,
पीता रहा  वह शान से उसे
साम्राज्य था उसका टिका
इस तमाधिष्टित शल्य - क्रीड़ा के सहारे।

दु:सह होते दर्द ने मुझको झिंझोड़ा
वक़्त ने करवट बदल ली,
लगा, दस्तक दी सुबह ने
रोशनी की किरण फूटी,
देख खुद को रक्त - रंजित
घाव की पीड़ा भुला कर
तन गया प्रतिरोध में मैं
भर गया प्रतिशोध से मैं,
काँपते अब हाथ उसके
चूकता उसका निशाना
हाथ में थामे हुए खूँखार खंज़र
वह उजाले में खड़ा नंगा दिखे अब।

मैं निडर हो, बढ़ चला
अपने नए संघर्ष - पथ पर,
निहत्थे ही,
सामने निष्प्रभ खड़ा वह
देखता आश्चर्य से भर
हौंसला मेरा निराला।

ढह रहा प्रासाद उसका
भरभराकर ध्वस्त होता
क्योंकि उसकी नींव का पत्थर बना मैं
आज सहसा खिसक आया हूँ वहाँ से
खुद स्वयं की नींव बनने,
वक़्त मुट्ठी में दबोचे,
ढेर सी हिम्मत जुटाकर।

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