आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Monday, June 2, 2014

गाँव की नदी में मछली (2008)

हमारे गाँव के पूर्वी किनारे पर
एक मालाकार नदी बहती है
उस नदी में
एक सुन्दर - सी मछली रहती है
गाँव वालों की नज़र हमेशा
उस मछली पर रहती है
मछली भी गाँव वालों से नित्य जैसे
'पा सको तो पा लो'
यूँ ही कुछ कहती है
सुना यही जाता है कि
उसे पाने को लालायित
गाँव के हर पुरुष की कामिनी
नित्य सुबह उठ
'जाओ, लाओ पिया नदिया से सोन मछरी'
यही रट लगाए रहती है।

मछली जैसे उस गाँव के
गले में वलयित
नद्य - माल में सज्जित
एक नगीना है
जिसे हासिल करने को ही धड़कता
गाँव की हर मानिनी के पिया का सीना है।

निरन्तर जारी गोताखोरी के बावजूद
बनी रहती है वह मछली
हर किसी को अप्राप्य
जैसे सचमुच ही हो वह
कोई सोने की परी
बस अपनी मर्जी से ही
एक झलक दिखलाने वाली
सुबह, शाम या दोपहरी।

गाँव के बूढ़ों ने भी
अपनी जवानी के दिनों में
ऐसी ही कोशिशें की थीं
नदी की इस मछली को पाने की
आज बूढ़ी हो चलीं उनकी भामिनियों के
जवां दिलों ने भी
गुनगुनाई थीं उन दिनों
'बच्चन' के गीत की पंक्तियाँ
सी गुनगुनाहट के आनन्द में
कट गई उनकी तमाम उम्र
भले ही ग़ालिब की तरह
'कुछ आरज़ू में और कुछ इंतज़ार में'
किन्तु उनका अनुभव बताता है कि
मछली का मिलना जरूरी नहीं है नदी में
उसकी मौजूदगी का अहसास,
उसको पाने की उद्विग्नता ही महत्वपूर्ण है।

जब तक चारों तरफ फैली रहेगी
मछली के सौन्दर्य की चर्चा और
अप्राप्य बनी रहेगी वह लोगों को
तभी तक जारी रहेगी
उसे पाने के लिए
लोगों की गोताखोरी और प्रियतमाओं का गुनगुनाना,
जिस दिन नए सौन्दर्य - शास्त्र की तलाश में
भुला दिए जाएँगे
'सोन मछरी' के सन्दर्भ
और सुखा दी जाएगी
गाँव की नदी की धार
उस दिन खुले में पड़ी - पड़ी बिलबिलाएगी मछली
भूल जाएगा सारा का सारा गाँव
प्रेम की उस मनुहार का आनन्द
और गोताखोरी के सारे के सारे प्रयोग।

चलो कोशिश करें कि
आलोचकों के कहर से बची रहे
हमारे गाँव की नदी और उसकी सदाकर्षी मछली
ताकि बचे रहें हमारे सुख के अवशेष स्रोत
और हमारी गोताखोरी की पुरानी आदत थी।

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