आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Monday, June 2, 2014

हम लड़ेंगे (2013)

अब  नहीं अन्याय कोई भी सहेंगे
सो चुके, अब तो उठेंगे, हम लड़ेंगे।

बिन लड़े ही कौन सा सुख - चैन पाया,
भिड़ गए होते तो कुछ बदलाव आता,
घाव होते,  ख़ून बहता,  फख़्र होता,
सरलता  से रक्त तो ना चूस पाता,
कुंद  धारों  को  करेंगे  खूब पैनी
अब नहीं नभ से डरेंगे, हम उड़ेंगे।

चुप्पियों  ने भी नवाज़ी ठोकरें ही
अब नहीं मंजूर डर कर सिर झुकाना,
मरे  सिर की देह को ढोते रहे हैं
कटे सिर की लाश है बेहतर उठाना,

नहीं होगा पेट का डर, पाप का डर,
अब निडर होकर बढ़ेंगे, हम भिड़ेंगे।

सृष्टि के दिन ही बुना था जाल भ्रामक
जन्म के दिन ही छिनी सारी विरासत,
पालने  पर  लेटने  की उम्र  में ही
घास - माटी की चुभन ने किया स्वागत,

हर कदम लुटते रहे, अब ना लुटेंगे
हक़ की खातिर अब जुटेंगे, हम बढ़ेंगे।

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