आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Saturday, October 25, 2014

अदम गोंडवी का निरालापन (लेख)

हिन्दी के चर्चित ग़ज़लकार अदम गोंडवी (मूल नाम रामनाथ सिंह) से मैं कभी मिला नहीं, लेकिन एक लंबे अरसे से मैं उनकी शायरी का कायल रहा हूँ। अभी हाल ही में उनके निधन के समाचार ने मुझे विह्वल कर दिया तो मैं वाणी प्रकाशन से उनका काव्य-संग्रह समय से मुठभेड़ खरीद लाया और उनकी एक-एक ग़ज़ल व नज़्म को कई-कई बार पढ़ गया। वे संभवत: दुष्यन्त के बाद हिन्दी के सबसे ज्यादा उद्धृत किए जाने जाने ग़ज़लकार हैं। हमेशा ठेठ ग्रामीण पहनावे में रहने वाले, गाँव की चमारों की गली से लेकर दिल्ली व संसद के भीतर तक की गतिविधियों पर पैनी नज़र रखने वाले, शोषण, अन्याय व दोगलेपन के ख़िलाफ बेबाकी से लिखने वाले तथा भूख व अन्य समस्याओं का निदान केवल क्रांति के जरिए देखने वाले अदम गोंडवी की शख़्सियत सचमुच निराली थी। उन्होंने थोड़ा ही लिखा लेकिन जो भी लिखा एक आम आदमी के नज़रिए से लिखा और एक जनकवि के रूप में अपनी पहचान बना ली।
                          
            अदम गोंडवी को अदबी इदारों में फन का दम घुटता दिखता था। वे अदीबों को ठोस धरती की सतह पर लौट आने और अदब को मुफ़लिसों की अन्जुमन तक ले जाने का आह्वान करने वाले थे। वे ज़िस्म के मोहक कटानों को दिखाने में मशगूल टी. वी. व अख़बारों की घटिया सोच के प्रति दुःखी होने वाले इन्सान थे। इनके कुत्सित संबन्धों से पाठक का क्या ले्ना-देना, लेकिन ये तो ज़िद पे अड़े हैं अपना भोग-विलास लिखेंगे कहकर उन्होंने साहित्यकारों के बीच पनप रही विकृत प्रवृत्तियों पर भी गहरा कटाक्ष किया। जो बदल सकती है इस दुनिया के मौसम का मिज़ाज, उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिए कहकर उन्होंने नौजवानों की चेतना को झकझोरा। घर के ठंडे चूल्हे पर खाली पतीली है, बताओ कैसे लिख दूँ धूप फागुन की नशीली है कहकर उन्होंने सहजता से हमें काव्याभिव्यक्ति के नए आयाम समझाए।

            उत्तर प्रदेश की सामाजिक व प्रशासनिक विसंगतियों को उजागर करते हुए उन्होंने कितना खुल्लमखुल्ला कहा, कभी आकर जिले में आप सामंती ठसक देखें, कहा जाता है यू. पी. में न राजा है न रानी है और फिर बेबाकी से, ये मैकाले के बेटे खुद को जाने क्या समझते हैं, इनके सामने हम लोग थारू हैं तराई के कहकर उन्होंने अफसरशाही की अहंकारी मानसिकता को लताड़ने के साथ-साथ अपने पड़ोसी तराई-क्षेत्र के थारू आदिवासियों के प्रति बरती जा रही सामाजिक अवहेलना को भी सामने ला दिया। वे आजाद भारत के मौजूदा हालातों से इत्तेफ़ाक नहीं रखते थे, सौ में सत्तर आदमी फिलहाल जब नाशाद है, दिल पे रख के हाथ कहिए देश क्या आजाद है और वे स्वार्थी हुक़्मरानों को, मुल्क जाए भाड़ में इससे उन्हें मतलब नहीं, एक ही ख़्वाहिश है कि कुनबे में मुख़्तारी रहे जैसी बातें कह-कहकर लगातार लताड़ते रहे।

            वे सांप्रदायिक दंगों के पीछे की सियासत को बखूबी पहचानते थे। शहर के दंगों में जब भी मुफ़लिसों के घर जले, कोठियों की लॉन का मंजर सलोना हो गया कहकर उन्होंने इस सियासत की असलियत उघाड़ दी। वे सरकारी नीतियों को, पहले ज़नाब कोई शिगूफा उछाल दो, फिर कर का बोझ क़ौम की गर्दन पे डाल दो जैसी बातें कहकर पूरी तरह नंगा कर देने वाले थे। घूसखोरी की बढ़ती प्रवृत्ति के बारे में उन्होंने, रिश्वत को हक़ समझ के जहाँ ले रहे हों लोग, है और कोई मुल्क तो उसकी मिसाल दो कहकर अपनी चिंता जताई। बढ़ती आर्थिक असमानता से चिंतित होकर उन्होंने, तुम्हारी मेज चाँदी की तुम्हारे जाम सोने के, यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रकाबी है जैसी बेमिसाल पंक्तियाँ लिखी। सुर्खी है मेरे खूँ की इन लॉन के फूलों में, इस तल्ख़ हक़ीक़त को क्यूँ आप छुपाए हैं कहकर उन्होंने शहरी अमीरों से गाँव के गरीबों की पीड़ा बताने की कोशिश की। वे नैतिकता में आ रही गिरावट  का कारण गरीबी को ही मानते थे, चोरी न करें झूठ न बोले तो क्या करें, चूल्हे पे क्या उसूल पकाएंगे शाम को। भूख की तिलमिलाहट और रोटी की जंग तो उनकी शायरी में जगह-जगह बिखरी रही है।

            ‘काजू भुने प्लेट में जैसी बेजोड़ ग़ज़ल लिखकर उन्होंने वर्तमान राजनीतिक व्यवस्था के प्रति गहरा आक्रोश व्यक्त किया और इस बात की ताकीद की कि अब जनता के पास बस बगावत का ही चारा बचा है। उन्होंने हाथ में हथियार उठा लेना जनता का हक माना और लिखा, गर खुदसरी की राह पर चलते हों रहनुमा, कुर्सी के लिए गिरते-सँभलते हों रहनुमा, गिरगिट की तरह रंग बदलते हों रहनुमा, टुकड़ों पे जमाख़ोर के पलते हों रहनुमा, जनता को हक है हाथ में हथियार उठा ले। अदम गोंडवी जैसा जनवादी शायर ही भारत माता की ऐसी तस्वीर खींच सकता था, भारत माँ की इक तस्वीर मैंने यूँ बनाई है, बँधी है एक बेबस गाय खूँटे में कसाई के। उन्होंने, जिसकी गर्मी से महकते हैं बग़ावत के गुलाब, आपके सीने में वह महफूज़ चिन्गारी रहे कहकर जन-जन से अपने मन में प्रतिरोध की भावना को शाश्वत रूप से जगाए रखने का आह्वान किया। उन्होंने दर्जनों किताबें नहीं लिखीं। ढेरों शायरी नहीं की। लेकिन जितना भी उन्होंने लिखा, उसी से अपने देश-काल की सारी विसंगतियों को उजागर करके रख दिया और हम सब में भूख एवं गरीबी से लड़ने तथा व्यवस्था से भिड़ने का अदम्य साहस भर दिया। तभी तो मेरे ज़ेहन में उनकी स्मृतियों को प्रणाम करते समय यह शेर उभरा-

        “वो बाग़ी शायर था, जियाला था, समय से मुठभेड़ करने वाला था,
सच वो कहता था तान के सीना, वो अदम गोंडवी था या निराला था।

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