आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Friday, December 26, 2014

अन्तर्मुखी (18-11-2014, मसूरी)

जो अकेले चलता है
वह राह में अलग से दिखाई पड़ता है
जो भीड़ के साथ चलता है
वह समय के भीतर खो जाता है।

जो अकेले आगे बढ़ता है
उसे प्राय: गलती से
अंतर्मुखी मान लिया जाता है
और जो भीड़ को साथ जुटा लेता है
उसे बहिर्मुखी
किन्तु मुझे लगता है कि
अन्तर्मुखी वह होता है
जिसे आगे बढ़ने के लिए भीड़ की जरूरत होती है
और बहिर्मुखी वह
जिसकी चुप्पी ही भीड़ का आकर्षण।

कभी - कभी किसी पौधे को
जड़ों से काटकर व शीश से मरोड़कर
बोन्साई में तब्दील कर दिया जाता है
क्या ऐसे पौधे के कभी आगे न बढ़ पाने का कारण
उसका अंतर्मुखी होना होता है?

ऊपर से सदाबहार दिखने वाले
घने वन के पेड़ों के नीचे
तमाम ऐसे पौधे होते हैं
जो कभी आगे नहीं बढ़ पाते
और वहीं जमीन से चिपके रहते हैं
दबे -दबे, सिकुड़े, सिमटे
लेकिन क्या आप कभी उनके वज़ूद को

उन्हें अंतर्मुखी बताकर नकार सकते हैं?

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