आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Friday, December 26, 2014

आलोचना की विश्वसनीयता का संकट (लेख)

आजकल कहानी की आलोचना कुछ इस तर्ज़ पर होने लगी है जैसे अख़बारों में प्रायोजित समाचार छपते हैं। कहानीकार का नाम देखकर कहानी की श्रेष्ठता अथवा उसकी बुराई का पैमाना आलोचक तय कर लेता है। अमुक को प्रोमोट करना है, अमुक को बेहतरीन लेखक बताना है, अमुक को घटिया सिद्ध करना है, अमुक के लेखन को अश्लील और बेकार की फैन्टसी बताना है, यही ऐसी आलोचना का उद्देश्य बना हुआ है। इसका अर्थ यह नहीं कि नई पीढ़ी अच्छी व सार्थक तथा यथार्थ की ज़मीन पर टिकी हुई कहानियाँ नहीं लिख रही है। नए कथाकार समकालीन राजनीति, सामाजिक व सांस्कृतिक सरोकारों से बराबर रू - - रू हो रहे हैं, भाषा और शिल्प के नए पड़ाव तलाश रहे हैं और निरन्तर यथार्थ की नई ज़मीन से टकरा रहे हैं। लेकिन हिन्दी के नामचीन आलोचक नए कथाकारों पर लिखना अपनी तौहीन समझते हैं। वे आज भी प्रेमचंद, रेणु, मोहन राकेश और कमलेश्वर के कथालोक में भटकते रहते हैं। नए आलोचकों ने लेखकों के साथ अपने - अपने मित्र - समूह बना लिए हैं और वे कहानियों की आलोचना इस तरह से करते हैं कि जैसे उन्हें बस अपने मित्रों की कहानियों से ही मतलब है। पत्रिकाओं के संपादकों एवं प्रकाशकों ने भी नए लेखकों के अपने परिवार चिन्हित कर लिए हैं। वे अपने परिवारीय लेखक - मंडल की श्रेष्ठता सिद्ध करने में ही लगे रहते हैं। उन्हीं पर अपनी संपादकीय टिप्पणियाँ लिखते हैं। स्पष्ट है कि ऐसे में छोटे शहरों व कस्बों में रहने वाले यथार्थ की खुरदरी ज़मीन पर टिके युवा लेखक बहुत ल्द ही हाशिए पर निपट जाते हैं और बड़े शहरों में रहने वाले तथा पत्र - पत्रिकाओं के निरन्तर संपर्क में रहने वाले काल्पनिकता से भरे नए लेखक बड़ी तेजी से प्रसिद्धि की सीढ़ियाँ चढ़ जाते हैं। सूरज पालीवाल अपने लेख ‘हमारे समय की कहानियाँ’ (‘बहुवचन’ 37, अप्रैल - मई 2013) में लिखते हैं, - “इस पीढ़ी के साथ एक दिक्कत यह हुई है कि यह कुछ संपादकों तथा कुछ चमकीली पत्रिकाओं के कंधों पर बैठकर आई थी। उन कंधों ने इन्हें एक ओर दिग्भ्रमित किया तो दूसरी ओर विकलांग।” हिन्दी - साहित्य के आज के परिदृश्य को देखने पर उनकी यह टिप्पणी सही ही लगती है।

            डा. अर्चना वर्मा ने 'बहुवचन' के उपरोक्त अंक में ही प्रकाशित अपने साक्षात्कार में समकालीन आलोचना की इसी स्थिति की ओर इशारा करते हुए कहा है, - “इस स्थिति का एक पक्ष और भी है, योजनाबद्ध तरीके से चर्चा चलाना, किसी को ढहाना, किसी को उछालना, गुट बनाकर हमला करना, अपनी ब्रांड - वैल्यू इस्टैब्लिश करने के हथकंडे। संचार - माध्यम और उसके इस्तेमाल की पकड़ इस सिललिले में बहुत कारगर भी है। कई पत्रिकाओं, अख़बारों का यह फुलटाइम धंधा भी है, लेकिन ये शायद इस वक़्त की जरूरी रणनीतियाँ हैं। कई बार अनीतियाँ भी।” अर्चना जी इन रणनीतियों को इस वक़्त की जरूरत क्यों मान बैठी हैं, यह मैं नहीं जानता, लेकिन मेरे विचार में यह बिल्कुल गैर - जरूरी और साहित्य को बरबादी की ओर ले जाने वाली रणनीतियाँ हैं। आलोचना का कर्म मूल्यांकन करना है, सीप में बंद अदृश्य मोतियों की खोज करना है, रचना में निहित विचारों एवं भावों को स्पष्ट रूप में सामने लाना है, लेखकीय दुरूहताओं को अनावृत्त करना है और पाठकों के विवेक को जागृत करना है। यदि आलोचक साहित्य की राजनीति का प्रणेता बन जाएगा, पुरस्कारों की संस्तुतियाँ करने लगेगा, लेखकों को बनाने - बिगाड़ने का जिम्मा ले लेगा तो फिर वह अपने वास्तविक कर्म को करने में कहाँ से सफल होगा? आज के बाज़ारोन्मुख समाज व उपभोक्तावादी व्यवहार के बरक्स यह रणनीतियाँ जरूरी हो सकती है, किन्तु साहित्य की साख बचाए रखने की दृष्टि से, समय से मुठभेड़ करने के लिए उसे सक्षम बनाने की दृष्टि से और उसके प्रवाह को नए - नए ज़मीनी सोतों से फूटकर निकलने वाले जल की मदद से निरन्तरता प्रदान करने की दृष्टि से यह जरूरी है कि आलोचना सजगता और सतर्कता के साथ की जाय, उसकी एक विहंगम दृष्टि हो, उसमें विचारधाराजन्य अस्पृश्यता न होकर खुली वैचारिक विवेचना हो और अंतत: उसमें आधुनिकता या उत्तर आधुनिकता से भी आगे निकलकर भविष्य की ओर झाँकने वाली एक सूक्ष्मदृष्टि हो।       

            पिछले तीस वर्षों में भारतीय समाज व राजनीति में व्यापक बदलाव आया है। साहित्य भी इससे अछूता नहीं रहा है। जातिगत राजनीति एवं स्त्री के अधिकारों के संघर्ष ने साहित्य व साहित्यिक आलोचना की जातीयता को भी तेजी से बदला है। साहित्य में नए विमर्शों ने अपनी जड़ें मजबूत की हैं। दलित विमर्श ने दलित व आदिवासी समाज की चेतना की नई ज़मीन तैयार की है। राजनीति में आए बदलावों ने इस चेतना को पंख दिए हैं और दलित वर्ग के युवाओं को नया साहस एवं विश्वास दिया है। शिवमूर्ति, काशीनाथ सिंह, उदय प्रकाश, ओमप्रकाश वाल्मीकि, संजीव व अखिलेश जैसे रचनाकारों तथा परमानन्द श्रीवास्तव व वीरेन्द्र यादव जैसे आलोचकों ने दलित चेतना को मुंशी प्रेमचंद की ज़मीन से निकालकर उसे उत्तर आधुनिक दलित चेतना से जोड़ा है। वर्तमान दौर के प्रमुख कथाकार अखिलेश अपनी कहानियों में निहित राजनीतिक विमर्श व अपनी विशिष्ट अभिव्यंजना शैली व भाषा के कारण समकालीन कथाकारों से एकदम अलग और सार्थक दिखते हैं। वे अपने समय से भी आगे निकलकर एक भविष्यदृष्टा कथाकार के रूप में हमारे सामने आते हैं। उनकी कथाओं के चित्र - विचित्र पात्र हमारी संवेदनाओं को गहराई से कुरेदते हैं और समाज में हाशिए पर अलग - थलग पड़े निकृष्टतम जीवन भोग रहे इनसानों की स्थिति को फोकस में लाते हैं। मसलन, ‘शापग्रस्तका सुख-दुःख की अनुभूतियों से रहित एवं फिश्चुला जैसे कष्टकारी रोग पर फख़्र करने वाला प्रमोद वर्मा, चिट्ठीके पात्र त्रिलोकी, रघुराज व मंडली के अन्य सदस्य, बायोडाटाका नेता बनने को आतुर राजदेव, पातालका नपुंसक मंदबुद्धि प्रेमनाथ, ऊसरका महत्वाकांक्षी नेता चन्द्रप्रकाश श्रीवास्तव, जलडमरूमध्यके डिप्रेशन के शिकार व रोना भूल चुके सहाय जी,  ‘वजूद का डरपोक रामबदल, उसका बगावती बेटा जयप्रकाश तथा अत्याचारी बैद पंडित केसरीनाथ, यक्षगानका धोखेबाज पति छैलबिहारी, स्वार्थी कामरेड श्याम नारायण तथा चालाक महिला नेता सरोज यादव, ग्रहणका गरीब विपद राम तथा उसका बिना गुद्दे का पेटहगना बेटा राजकुमार, अँधेराका दंगे से आतंकित प्रेमी प्रेमरंजन, श्रंखलाका विद्रोही स्तम्भलेखक रतन कुमार आदि। उदय प्रकाश की ‘पीली छतरी वाली लड़की’, ‘वारेन हेस्टिन्ग्ज़ का सांड़’ व 'मैंगोसिल' जैसी कहानियाँ भी अपनी विषयवस्तु के नएपन के कारण ही हमें आज भी अत्यधिक आकर्षक लगती हैं।

कहानी व उसकी आलोचना के क्षेत्र में कमोवेश इसी तरह का व्यापक परिवर्तन स्त्री विमर्श की दृष्टि से भी आया है। महादेवी वर्मा के युग के बाद हिन्दी के स्त्री - लेखन में कृष्णा सोबती, मनू भंडारी आदि कथाकारों ने नारी - चेतना के जिस नए युग का सूत्रपात किया उसे पिछले दो - तीन दशकों में मृदुला गर्ग, मैत्रेयी पुष्पा, चित्रा मुद्गल, नासिरा शर्मा, ममता कालिया, इन्दू जैन, अर्चना वर्मा, उषा महाजन, क्षमा शर्मा, प्रभा खेतान, नमिता सिंह जैसी स्त्री लेखिकाओं ने नए आयाम दिए हैं। इससे स्त्री स्वातंत्र्य व समता की आवाज़ को एक नई पहचान मिली है। पुरुष कथाकारों ने भी स्त्री विमर्श के क्षेत्र में कम योदान नहीं दिया है। शिवमूर्ति मुंशी प्रेमचंद के नारी - जागरण व स्त्री - समानता के विचार से कहीं आगे बढ़कर शोषण के विरुद्ध संघर्ष करती ग्रामीण स्त्रियों के विद्रोही रूप को सामने लाते हैं। उनके स्त्री - विमर्श के केन्द्र में आज की पढ़ी - लिखी, जागरूक, पुरुष समाज से बराबरी का दर्जा पाने के लिए प्रतिस्पर्धा करती, सामाजिक व बौद्धिक स्तर पर अपनी अस्मिता की रक्षा करने के लिए आर्थिक व राजनीतिक ताकत जुटाती, अपने यौनिक अधिकारों के लिए सतर्क, आज के भद्रलोक की नारी नहीं है। उनका स्त्री - विमर्श समाज की उन निम्नवर्गीय औरतों के शारीरिक व आत्मीय सौन्दर्य, दैहिक ताप व उत्पीड़न, जिजीविषा, प्रतिरोध, राग - द्वेष, पारिवारिक क्लेश आदि पर केन्द्रित है, जो दूर - दराज के गाँवों में घर - जवार की सीमाओं में कैद होकर अपना जीवन गुजार रही हैं। चाहे वह कसाईबाड़ा की शनिचरी, लीडराइन या परधानिन हो, तिरिया चरित्तर की विमली हो, अकाल-दंड की सुरजी हो, सिरी उपमा जोग की ममता हो, केशर - कस्तूरी की केशर हो या भरतनाट्यम की देहाती पत्नी, ये सभी ऐसे स्त्री कथा - पात्र हैं जिनमें गरीबी और सामाजिक लाचारी के बावजूद आत्मसम्मान बचाने की लालसा है, प्रतिरोध है।

साहित्यिक विमर्श की नई प्रवृत्तियों के साथ - साथ भूमंडलीकृत अर्थव्यवस्था, सूचना प्रौद्योगिकी के विकास तथा संचार - क्रांति ने साहित्य के आदान - प्रदान एवं उसकी आलोचना के तौर - तरीके को भी बड़ी तेजी से बदला है। आज पत्र - पत्रिकाओं के अलावा ब्लॉग - साहित्य की पाठकों तक व्यापक पहुँच है। लेखकों और आलोचकों की नई पीढ़ी इन नए इलेक्ट्रॉनिक टूल्स का व्यापक तौर पर उपयोग कर रही है। चित्रा मुद्गल जी ने अपने हालिया कहानी - संग्रह ‘पेन्टिंग अकेली है’ में इस बदलाव के वातावरण को कुछ इस तरह से रेखांकित किया है, - “हम अपने समय के सर्वाधिक चुनौतीपूर्ण कालखंड से गुजर रहे हैं, जहाँ मानवी संवेदना, नैतिकता, जीवन - मूल्य और आदर्श सर्वथा अप्रासंगिक घोषित हो रहे हैं। मानकर चला जा रहा है कि खोखले संस्कारों और रिश्तों के थोथे पाखंडों से मुक्त होकर ही व्यक्ति स्वयं के व्यक्तित्व विकास के नए सोपानों को संधानित कर सकता है।” किन्तु बदलाव के इस दौर में सकारात्मक परिवर्तनों के साथ - साथ बड़ी तेजी से कुछ नकारात्मक प्रवृत्तियाँ भी उभर रही हैं। इक्कीसवीं सदी के वर्तमान दशक में कुछ प्रकाशक व संपादक साहित्य को बाज़ार में उपभोक्ताओं को आकर्षित करने के लिए उतारी जाने वाली जिंसों की तर्ज़ पर पाठकों के बीच एक उपभोक्ता वस्तु के तौर पर स्थापित करने का प्रयत्न करते दिख रहे हैं। आज नए विमर्शों के नाम पर, विशेष रूप से स्त्री - विमर्श के नाम पर भी कुछ इसी प्रकार का खेल खेला जा रहा है। ऐसा लगता है कि जैसे पहले के कथाकारों ने कभी स्त्री की संवेदनाओं को समझा ही नहीं, कभी उसकी वैचारिक व सामाजिक मुक्ति की बात ही नहीं की, उसके संघर्ष तथा बलिदान को कभी अपनी कलम से स्पर्श ही नहीं किया। आज स्त्री विमर्श को कुछ यूँ प्रस्तुत किया जा रहा है कि जैसे यह कोई अचानक प्रकट हुआ ट्रेन्ड है और किसी तरह के नए स्त्री - आंदोलन का परिणाम है। लेकिन यदि साहित्य का व्यवसायीकरण करते हुए स्त्री की मुक्ति, स्वतंत्रता, समता, नेतृत्व - क्षमता, सौन्दर्य - श्रेष्ठता आदि के नाम पर अश्लीलता और चटखारे लेकर पढ़ी जाने योग्य विसंगतियाँ ही परोसी जाएँगी तो इससे स्त्री - वर्ग का उत्थान नहीं, पतन ही होगा।

आलोचना की व्यक्तिवादी व हमलावर प्रवृत्ति ने वर्तमान दौर की कहानी के संबन्ध में कुछ ऐसे विवादों को भी जन्म दिया है, जो पहले के दौर में कभी नहीं होते थे। जब शालिनी माथुर अपने लेख 'मर्दों के खेला में औरत का नाच (तहलका, 6 जनवरी 2014) में लिखा, - “मर्दों के इस खेला में पुरुषों को आनंद देने के लिए औरतों की एक ऐसी पोर्न छवि गढ़ी गई है जो पूर्णतया यौनीकृत है। उसमें न चेतना है, न हृदय, न मन और न भावना। यह पोर्न की क्लासिकल सेडोमेसोचिस्ट छवि है। इन औरतों को यौनिक वस्तु होने, कष्ट पाने और अपमानित होने में आनंद आता है”, तो उसके प्रत्युत्तर में कथाकार जयश्री राय ने ‘जानकीपुल’ ब्लॉग में प्रकाशित अपने लेख में लिखा, - “पितृसत्ता से उपहार में प्राप्त शुचिताबोध आप पर इस कदर हावी है कि इस क्रम में आप भावनासंवेदना और प्रेम से सिक्त स्त्री - मन की न सिर्फ अनदेखी करती हैं बल्कि बिना पात्रों की पृष्ठभूमि, भावभूमि और मनोदशा को समझे ही अपने पूर्व निर्धारित निष्कर्षों को कहानी पर आरोपित कर देती हैं।” शुचिता बनाम अश्लीलता से जुड़े इस तरह के विवाद आने वाले समय में निश्चित ही और ज्यादा गहराएँगे क्योंकि साहित्य के बाज़ारीकरण की प्रवृत्ति इन्हें कभी थमने नहीं देगी। हो सकता है, इस तरह की आलोचना को बाज़ारोन्मुख पत्रिकाओं के संपादकों की तरफ से सुनियोजित तौर पर बढ़ावा मिले और वे ऐसे विवादों से जुड़े आरोपों प्रत्यारोपों को प्रमुखता के साथ छापकर अपनी पत्रिकाओं की लोकप्रियता को बढ़ाने का प्रयास करें। इंटरनेट का ब्लॉग - लेखन व ई - प्रकाशन भी इससे अछूता नहीं है, और वहाँ इस तरह की आलोचना से जुड़ी योजनाबद्ध छीछालेदर मचाने की और भी आज़ादी है। जब वहाँ पोर्न सामग्री व आतंकवाद को बढ़ावा देने वाले साहित्य पर ही कोई नियंत्रण नहीं लग पा रहा है, तो वहाँ इस तरह के बाज़ारू व अर्थहीन सामग्री की समीक्षा अथवा चिन्ता कौन करेगा?

वर्ष 2013 के भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार के लिए चयनित वरिष्ठ कवि केदारनाथ सिंह 'उम्मीद' पत्रिका में प्रकाशित अपने एक साक्षात्कार में अभी हाल ही में  कहा है, - “स्‍त्री भी हमारे समाज में दलितों ही काफी हद तक शोषित रही है। अब वह मुक्‍त होने की कोशिश कर रही है। लेकिन अभी भी तमाम सामाजिक वर्जनाएँ हैं जो काम कर रही हैं। इसके अनेक भेद - उपभेद हैं। जब समाज में जनतांत्रिक चेतना पैदा हुई तो उन्‍हें भी लगा कि उनके भी कुछ हक हैं, अधिकार हैं।  वे अपने अधिकारों से वंचित हैं। यह अधिकार की चेतना उनके भीतर प्रबल होती जा रही है। संपत्ति में अधिकार, परिवार में अधिकार, कार्य - क्षेत्र में अधिकार, समाज व राजनीति में अधिकार आदि - आदि। निजी इच्‍छाओं का दमन, पितृसत्‍ता के प्रभाव के कारण समाज में पिछड़ जाना, शादी करके घर बैठ जाना, इन सब बातों के प्रति उनके भीतर एक चेतना जगी है। समाज की इन असंगतियों को मिटाने के लिए वे आगे आई हैं। उन्‍होंने काफी कुछ लिखा है। कई स्‍त्री रचनाकारों ने बहुत अच्‍छी कविताएँ लिखी हैं। कहानियाँ तथा उपन्‍यास भी लिखे जा रहे हैं।” उनका कहना पूरी तरह से सही है। नई पीढ़ी की अनेक सशक्त स्त्री कथाकार मृदुला गर्ग, मैत्रेयी पुष्पा, चित्रा मुद्गल, नासिरा शर्मा, ममता कालिया आदि की तर्ज़ पर, जिनमें मनीषा कुलश्रेष्ठ, नीलाक्षी सिंह, जयश्री रॉय, गीताश्री, जया जादवानी, आकांक्षा पारे आदि का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है, स्त्री विमर्श के आंदोलन को एक सशक्त रूप दे रही हैं। लेकिन बाज़ारोन्मुख प्रकाशन - जगत व उपभोक्तावादी संस्कृति की विसंगतियों के प्रति उन्हें सतर्क रहना होगा, अन्यथा यह अभियान राह से भटक जाएगा। आज कुछ स्त्री कथाकार अपवादों को सामान्य स्थिति के रूप में चित्रित करके एक ऐसी दुनिया को यथार्थ के रूप में सामने लाने की कोशिश कर रही हैं जो वास्तव में बड़ी ही काल्पनिक लगती है। क्या इस तरह की प्रवृत्ति को श्रेष्ठ मानकर शहरी व ग्रामीण दोनों ही समाजों की स्त्रियों के सुख - दुख के वास्तविक यथार्थ को रेखांकित करने वाले ज़मीन से जुड़े कथाकारों के स्त्री - विमर्श को नकार दिया जाना उचित होगा? क्या अब यही चलन हो जाएगा, कि जो बाज़ार में बिकने योग्य होगा, वही छपेगा और उसी की चर्चा होगी?   

            समालोचक भरत प्रसाद  अपने लेख ‘सृजन की नई चुनौतियों की सदी’ (‘बहुवचन’ 37, अप्रैल – मई 2013) में प्रश्न उठाते हुए कहते हैं, - “यथार्थ की कालजयी प्रतिसृष्टि रचने के लिए जिस उद्दाम चेतना, सृष्टिदर्शी कल्पनाशीलता, बल खाती भावाकुलता और अपराजेय संकल्पधर्मिता की जरूरत होती है, वह कहाँ है हमारे युवा कहानीकारों में?” वे आगे कहते हैं, - “युवा कहानीकारों की कहानियों में अत्याधुनिक चरित्र हैं, कारनामें हैं, चालाकियाँ हैं, वर्णन - चमत्कार हैं, किन्तु नदारत है तो जीवन भर छाया देने वाली प्रकृति, जिसके बगैर एक सेकेंड के लिए सांस लेना मुहाल हो जाए।” भरत प्रसाद के प्रश्न पूरी तरह से जायज हैं। नए कहानीकार अच्छा लिख रहे हैं, कहानी की नई ज़मीन तैयार कर रहे हैं, किन्तु अभी सवालों के घेरे में तो हैं ही। ज्ञान प्रकाश विवेक, उमाशंकर चौधरी, विवेक मिश्र, पंकज सुबीर, कुणाल सिंह, मनीषा कुलश्रेष्ठ, नीलाक्षी सिंह, गीता श्री आदि अनेक ऐसे नाम हैं, जिन्हें इक्कीसवीं सदी कहानी के ट्रेन्ड सेटर के तौर पर बखूबी गिना जा सकता है। ज्ञान प्रकाश विवेक अपनी कहानी ‘वो जो अव्यक्त है’ में - ‘मछली अक्सर अपनी मासूमियत के कारण मारी जाती है। वह समझती है पानी में सिर्फ़ पानी है। सरल स्वभाव की मछलियाँ यह नहीं समझ पातीं कि पानी में जाल भी होता है’ तथा गीताश्री ‘एक रात ज़िन्दगी’ में - ‘एक स्त्री को एक रिश्ते से आज़ाद होने में इतना वक़्त क्यों लगा … कितने सवाल और कितने जवाब कमरे के वायुमंडल में तैर रहे हैं … कितने फैक्टर काम करते हैं एक स्त्री की आज़ादी में। कितने लोग मिलकर तय करते हैं उसकी क़ैद' जैसी बात लिखकर अपनी कलम की ताक़त का अहसास कराती हैं। ऐसे ही अनेक उदाहरण दिए जाते हैं, जो हमें भरोसा दिलाते हैं कि कमी आज की कहानियों में नहीं है, कमी तो जौहरी की निगाहों में आई है, जिसने सही रत्नों की पहचान करना बंद कर दिया है और नक़ली गहनों को असली बताने में जुटा हुआ है।

            यह हिन्दी साहित्य में आलोचना के संकट का दौर है। इससे पहले शायद ही कभी आलोचकों की इतनी आलोचना हुई हो। यह आलोचना की विश्वसनीयता का संकट है। डॉ. तीर्थेश्वर सिंह ‘छत्तीसगढ़ विवेक’ ब्लॉग पर प्रकाशित अपने लेख ‘समकालीन कहानी आलोचना और स्त्री विमर्श’ में लिखते हैं, - “युवा और युवतर पीढ़ी के लेखन से आलोचना की दूरी बढ़ी है। कविता की बनिस्बत कहानी आलोचना में ज्यादा ही, जिस तनाव और बेचैनी से गुजरकर नई पीढ़ी के कहानीकार लिख रहे हैं उससे दो चार होने का जोखिम आलोचना नहीं उठाना चाहती। जब हम कहानी की चर्चा करते हैं तो बीते कल के सृजन के प्रति अभिभूत और नई रचनाशीलता के प्रति शंकालु नजर आते हैं।" कहानी की आलोचना के इस वर्तमान लचरपन व पक्षपातपूर्ण रवैये में बदलाव आना जरूरी है। अभी एक कार्यक्रम में सुप्रसिद्ध हास्य कवि सुरेन्द्र शर्मा जी ने बहुत अच्छी बात कही कि उन्हें बाज़ार से डर नहीं लगता, बाज़ारूपन से डर लगता है। वास्तव में शंका की सर्जक आज के आलोचकों एवं प्रकाशकों की उपभोक्तावादी मन:स्थिति ही है। कुछ आलोचक शुचिता और संस्कृति का सवाल उठाकर दकियानूसी विचारों के पोषण की बातें करते दिखाई देते हैं। कुछ विचारधारा का प्रश्न उठाकर हर चीज़ को अपने एकपक्षीय नज़रिये से ही देखते हैं। आलोचना के इस बदले हुए समय में परमानन्द श्रीवास्तव जैसे नई रचनाओं का सूक्ष्म विहगावलोचन करने वाले वरिष्ठ आलोचक को हम खो चुके हैं। उनके निधन से सृजित खालीपन को भरने वाले नए आलोचक अभी सामने आने बाकी हैं। आज जिस तेजी से नई पत्रिकाओं का उदय हो रहा है और उनके माध्यम से अच्छी व विचारपूर्ण आलोचनात्मक सामग्री का विकास हो रहा है, वह उत्साहवर्धक है। यह बाज़ारू हो चली साहित्यिक पत्रिकाओं द्वारा पैदा किए गए गैप को भरेगा और साहित्य की आलोचना के नए स्वरूप को विकसित करने में निश्चित रूप से सहायक सिद्ध होगा।

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