आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

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Wednesday, December 9, 2015

विचारोत्थान

जो आदेश श्रीमन्!
कोई शक नहीं श्रीमन्!
विचारोत्थान इसी तर्ज़ पर जारी था
विद्वत्वृन्द सेनाओं में तब्दील हो चुके थे
देश में धर्मोत्थान का बसन्त छाया था
जिन्हें जरा - सा भी शक - सुब्हा था
वे छद्मविचारी नराधम थे
वे अव्वल दर्जे के असहिष्णु थे
क्योंकि वे इस बसन्तकाल में भी
महकने और बहकने के ख़िलाफ़ थे
वे विधर्मियों को मनुष्य मानने की भूल करने वाले
अप्राकृतिक प्राकृतता के शिकार थे
वे देशनिकाला दिए जाने के ही लायक थे
क्योंकि उन
की प्रतिरोधभरी उपस्थिति के कारण ही
देश की बासन्ती छवि धूमिल हो रही थी
और दुनिया हमारी श्रेष्ठता की उद्घोषणा पर बेकार में शक कर रही थी

देश की सोच का तापमान
दो डिग्री सेल्सियस बढ़ाकर
ऊँची छलांग लगाने वालों को पता नहीं था कि
जलवायु में अचानक आने वाले बदलाव कितने घातक होते हैं
इस धर्माश्वमेध का घोड़ा कभी भी पटक सकता है
अपने की राजा को अहंकार की खाईं में
और 'कोई शक नहीं' वाली सैन्य - वैचारिकता
कभी भी डुबा सकती है देश को 
चुल्लू भर पानी में चमकीले चेन्नई शहर की तरह


मुझे भी बसन्त चाहिए
मुझे भी विचारोत्थान चाहिए
मुझे भी धर्मोत्थान चाहिए
लेकिन धरती का तापमान बढ़ाकर नहीं
सेनाओं की परेड से डराकर नहीं
मेरे चारों तरफ की हवा को मुक्त रहने दो
मेरे शरीर को एक ठंडी हवा जरूर छुएगी

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