आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

आल्हा - पाठ : केदारनाथ सिंह व नामवर जी की उपस्तिथि में

Wednesday, March 2, 2016

रूढ़ियों का विरोध करती वैचारिक संघर्ष की कविताएँ (उपेन्द्र चौहान की कविताओं पर)

उपेन्द्र चौहान सक्रिय राजनीति में हैं। वे लम्बे समय से सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में काम कर रहे हैं। यह सोने में सुहागा होने जैसी बात है कि वे कवि भी हैं। उनकी कविताएँ उसी राजनीति और समाज के विद्रूप को उद्घाटित करती हैं, जिसकी वे सेवा करते हैं। स्पष्ट है कि उनकी दृष्टि से वहाँ कुछ लुका - छिपा नहीं रह सकता। संवेदना के धरातल पर उनकी दृष्टि बड़ी दूर तक जाती है। वे पूरे विश्व के समाज को संदर्भ में रखकर कविता लिखते हैं और अपनी कविता से यह सिद्ध करते हैं कि संवेदना चाहे भारत की किसी आदिवासी स्त्री की हो, किसी बांगलादेशी दुष्कर्म - पीड़िता की हो, चीन की किसी कुँवारी लड़की की हो, कनाडा की किसी मासूम बच्ची की हो या अफ्रीका की किसी औरत की हो, वह भिन्न - भिन्न नहीं होती है। वह सर्वत्र व सार्वकालिक रूप में एक समान होती है। उपेन्द्र चौहान गहरी वैश्विक मानवीय संवेदना के स्पंदन से भरी कविताएँ लिखते हैं, और इस नाते वे राजनेताओं के बीच एक भिन्न पहचान रखने वाले नेता हैं तथा राजनीति व समाज से सीधे जुड़े होने के कारण कवियों के बीच अलग से दिखने वाले कवि भी। मैं जब से उन्हें जानता हूँ, वे मुझे इसी प्रकार के एक भिन्न व्यक्तित्व व कृतित्व के धनी इन्सान के रूप में नज़र आते हैं। उनकी कविता जीवन के उपक्रमों को, मनुष्य के श्रम की मिठास को किस आध्यात्मिक अंदाज़ में देखती - महसूसती है, उसका एक संकेत उनकी 'दशरथ माझी' कविता की इन पंक्तियों में मिलता है, -

'सोलह फीट चौड़े दाशरथिक दर्रे में पड़े
हर पत्थर से      
उसकी देह की गंध आती है
दुनिया की सारी प्रेम - कथाएँ बासी पड़ चुकी हैं
ताजा है
ताजा है दशरथ माझी का प्रेम'

       शोषित व उपेक्षित समाज, विशेष रूप से आदिवासी समाज उनकी कविताओं के केन्द्र में है। वे बखूबी जानते हैं कि माओवादी आंदोलन की जड़ों में स्वार्थ निहित है। वे आदिवासियों का एक अलग तरह से शोषण कर रहे हैं, उन्हें वैचारिक स्वाधीनता नहीं देना चाहते। अर्थात सता की एकाधिपत्यशाली एवं विचारों को दबा देने की प्रवृत्ति वहाँ भी हावी है। 'घोटुल' शीर्षक कविता में वे आदिवासी समाज में स्त्री को बराबरी तथा जीवन - साथी को चुनने की आज़ादी का हक़ देने वाली इस परम्परा के पक्ष में मजबूती से खड़े होते हुए उनकी आज की स्थिति पर अपनी चिन्ता स्पष्ट रूप से सामने रखते हैं, - 'और जिस घोटुल का गला अंग्रेज़ नहीं घोट सके / कितना अजीब, घोंट रहे उसका गला / आज ये … ओ … माओवादी / माओवादियों और सुरक्षा बलों के बीच पिस रहे हैं आदिवासी।' आदिवासी समाज में स्त्री की स्थिति को बेहतर मानते हुए वे कहते हैं, - 'यह आदिवासी समाज ही है जहाँ / लड़की अगर जोड़ी को बेमेल पाती है / चुपचाप अपने घर चली आती है / उससे कोई प्रश्न नहीं पूछा जाता / उस पर नहीं उठाई जातीं उंगलियाँ।' इस कविता में उपेन्द्र चौहान आदिवासियों व माओवादियों के परस्पर सम्बन्धों की बड़ी पैनी नज़र से समीक्षा करते हैं। उन्हें साफ - साफ दिखाई दे रहा है कि माओवादियों के प्रभाव - क्षेत्र में आदिवासियों के वैचारिक स्वातंत्र्य का हनन हो रहा है। वहाँ लोकतांत्रिक मूल्यों एवं प्रतिरोध की कोई स्वीकार्यता नहीं हैं। 'घोटुल' उनके वैचारिक स्वातंत्र्य, विशेष रूप से आदिवासी स्त्रियों की वैचारिक मुक्ति एवं प्रतिरोध की आज़ादी के महत्व को रेखांकित करने वाली एक महत्वपूर्ण कविता है। विचार को प्रतिरोध का सबसे बड़ा हथियार मानते हुए वे माओवादियों द्वारा उसके कुचले जाने के सत्य को बड़े ही सहज ढंग से आदिवासियों की 'वेतिया' नामक सामूहिक खेती की परम्परा के विरोध से जोड़कर उद्घाटित करते हैं, -

'माओवादी वेतिया जैसी सामुदायिक खेती की परम्परा से नहीं डरते
वे डरते हैं कि वेतिया के नाम पर
जब मिलेंगे - जुलेंगे आदिवासी
कुछ तो करेंगे चर्चा
कुछ तो होगा विचारों का आदान - प्रदान
और विचार किसी गुस्से से ज्यादा ख़तरनाक होते हैं।'

      आदिवासी स्त्रियों के संघर्षशील जीवन को रेखांकित करने वाली कविता 'वनउजाड़न देवियाँ' में, - 'जब ये देवियाँ माथे पर गट्ठर लेकर चलती हैं / पर्वत की छाती कांपने लगती है / वनों के अधिकारी भागने लगते हैं' कहकर उपेन्द्र चौहान उन्हें महिमामंडित करने का प्रयास करते हुए हमें एक नए प्रकार के सौन्दर्य - बोध का अहसास कराते हैं। हम जानते हैं कि वनों के अधिकारी आदिवासी स्त्रियों को जंगली उत्पादों के संग्रह करने व चूल्हे की लकड़ी आदि का इंतज़ाम करने जैसे बेहद जरूरी दैनंदिन उपक्रमों को पूरा करने से किस तरह से रोकते हैं, उन्हें किस तरह से अपमानित व प्रताड़ित करते हैं और उनका शोषण करते हैं। लेकिन यह सब जानते हुए भी हमें उपेन्द्र चौहान के इस सौन्दर्य - बोध का कायल होना पड़ता है। 'कमर में अपने शौर्य का फेंटा बांधे / पेड़ों और उसकी डालों पर चला रही हैं कुल्हाड़ियाँ / ये वनउजाड़न देवियाँ / वन नहीं उजाड़तीं / अपने जीवन में लड़ती हैं ये/ इस तरह भूख के राक्षस से' जैसी बात कहकर वे इन शोषित प्रताड़ित आदिवासी स्त्रियों को सचमुच भूख के कारक बने समकालीन महिसासुरों का मर्दन करने वाली संघर्षरत देवियों का दर्ज़ा देने में सफल हो जाते हैं।

         संथाल जन - जीवन से जुड़ी कविता 'जोग माझी' एक अद्भुत कविता है, जो उपेन्द्र चौहान की संवेदनापूर्ण अभिव्यक्ति को नए आयाम देती है। संथालों के गाँव में सामुदायिक गुरू के रूप स्थापित जोग माझी को सीधे संबोधित यह कविता अनेक प्रश्न उठाती है और जोग माझी द्वारा प्रचारित रूढ़ियों को सीधे - सीधे चुनौती देती है। यह परम्परा के प्रति विद्रोह करने तथा अंधविश्वासों को तोड़ने वाली कविता है। यह कविता विशेष रूप से आदिवासी स्त्रियों की अंतश्चेतना को मुखरित करती है। उनके हक के मामले में वे जोग माझी से सीधा सवाल करते हैं, - 'क्यों जोग माझी! क्यों कोई लड़की अपनी पसंद के लड़के को / अपना दूल्हा नहीं बना सकती? संपत्ति पर हक नहीं जता सकती?' संथाल समुदाय में प्रचलित गोनाड - पौन (माँ द्वारा किए गए लालन - पालन के एवज़ में दी जाने वाली कृतज्ञता - राशि) देने की परंपरा, जिसके तहत लड़के वाले बाल्यावस्था में ही लड़की को एक तरह से खरीद लेते हैं, के विरोध को उपेन्द्र चौहान ने बड़े ही मार्मिक ढंग से अपनी इन पंक्तियों सामने रखा है, - 'बारह रुपयों की की ख़ातिर / गोद में बच्चे को बिठाकर मुस्काएगी माँ / बारह रुपयों के लिए एड़ियों को पत्थर बनाएगा एक बाप / और दुबला होता जाएगा शोक में! संथाल - समाज में स्त्री - अस्मिता के निश्तेज हो जाने के लिए भी उपेन्द्र चौहान उनके गाँवों में जोग माझियों द्वारा प्रचारित इन्हीं रूढ़ियों को जिम्मेदार मानते हैं। वे इस यथार्थ को एक धारदार व्यंग्य के साथ इस रूप में सामने रखते हैं, -

'बिटिया तुम धनुष - धारण मत करना
कोई ख़तरा उत्पन्न हो तब भी नहीं
लूटी जा रही हो तुम्हारी अस्मत
तब भी नहीं
यही कहते हैं जोग माझी …
घर चुए तो बरखा में भीग लेना
भीग जाने देना अपने कपड़े और जलावन
छत छाने मत चढ़ना
नहीं तो काट लिए जाएँगे तुम्हारे कान'

       आज जब देश में स्त्रियों के ऊपर अत्याचार बढ़ते जा रहे हैं और बलात्कार जैसे जघन्य अपराध रुकने का नाम ही नहीं ले रहे, ऐसे में उपेन्द्र चौहान की 'बिठलाहा' कविता इस बात का संकेत देती है् कि बलात्कारियों से संथाल - समाज में प्रचलित तरीके से निपटना ही श्रेयस्कर होगा। बिठलाहा संथालों की सामुदायिक पंचायत में बलात्कारी के ख़िलाफ़ उसके विनाश के लिए लिया जाने वाले निर्णय है। प्रतिकार का यह तरीका बर्बर भले ही लगे, लेकिन बकौल उपेन्द्र चौहान, बलात्कारी से मुक्ति पाने का यही कारगर तरीका है, जो उनकी इन पंक्तियों में स्पष्ट रूप से रेखांकित है, - 'बिठलाहा! क्या तूने कहीं सुना है / देखा है … ऐसा कोई समाज / जो इस तरह हो खड़ा / दुराचार के ख़िलाफ़ … संथाल पारंपरिक औज़ारों से नष्ट कर रहे हैं / बलात्कारी का घर, उसके जानवर / उसकी फसलें / और भगा रहे हैं उसका परिवार … गाँव छोड़ पहले ही भाग चुका है बलात्कारी / अब फिर कभी नहीं आएगा गाँव / नहीं तो मारा जाएगा।'

       रूढ़ियों और दकियानूसी परंपराओं का विरोध करते - करते उपेन्द्र चौहान अक्सर देश की सीमाओं के पार जाकर अन्तर्राष्ट्रीय मानव - समुदायों की भावनाओं से सीधे जुड़ जाते हैं। ऐसी कविताओं में वे एक विश्व - मानव के रूप में सारी दुनिया की पीड़ा तथा संवेदना को अपनी कविता में समेट लेते हैं। ऐसा नहीं है कि इन कविताओं वे अपनी देशज चिन्ताओं या पीड़ाओं से परे हो जाते हैं। ऐसी कविताओं में उनकी अन्तर्राष्ट्रीय चिन्ताएँ कुछ इस तरह से सामने आती है, जैसे वे भारतीय समाज की भी बराबरी की चिन्ताएँ हों। एक तरह से देखा जाय तो वे इन कविताओं के माध्यम से यह सिद्ध करते हैं कि रूढ़ियों की कोई भौगोलिक सीमा नहीं होती और वे विश्व में सर्वत्र व्याप्त हैं। यही नहीं, उनकी ऐसी कविताओं से यह भी लगता है कि रूढ़ियों पर संभवत: काल का प्रभाव भी नहीं पड़ता हैं और वे सार्वकालिक हैं। उनकी इन कविताओं में भी स्त्री की त्रासदी ही केन्द्र में है। इंडोनेशिया की राजकुमारी रोरो अनतेंग द्वारा अपनी पच्चीसवीं संतान केसुमा को छह सौ साल पहले ज्वालामुखी में फेंककर बलि दिए जाने की घटना को अपनी एक कविता के केन्द्र में रखकर वे ऐसी क्रूर मान्यताओं पर करारा प्रहार करते हैं, - 'क्या सचमुच बलि से देवता हो जाते हैं खुश? तब ऐसा क्यों नहीं करते / उस देवता की ही बलि दे देते / ताकि वह देवता हो जाए और खुश!' कुछ इसी अंदाज़ में 'बारलाक' (कुँवारी लड़की का मांस खाने से उड़ने की शक्ति मिलने का दृश्य दिखाने वाली एक उत्तेजनापरक फिल्म का नाम) शीर्षक कविता में उपेन्द्र चौहान रूढ़िवादी फिल्म के प्रभाव में कनाडा के लारोंजे शहर में जानथन थिंपसेन नामक सात वर्षीया बच्ची को मारकर पड़ोसी खिलाड़ी दोस्त सैंडी चार्ल्स द्वारा उसका मांस खाए जाने की घटना के बारे में अपनी निष्पत्ति को - 'उत्तेजित मनुष्य को स्वाद का / कोई अंदाज़ा नहीं होता' कहकर बड़े ही प्रभावशाली ढंग से निर्वचित करते हैं।

       चीन की पौराणिक कथा पर आधारित कविता 'मीनघुन' में वे मृत युवकों की आत्मा की संतुष्टि के लिए सुन्दर युवती की लाश से शादी करने की विचित्र व विडंबना से भरी पृथा के कारण समाज में पनपने वाले कुँवारी लड़कियों की हत्याओं के घृणित कारोबार के बारे में उपेन्द्र चौहान करारा व्यंग्य करते हैं, -  'हमारा बेटा अगले जन्म में खुश रहे / इसके लिए जरूरी है कि हमें अच्छी बहू मिले / और अच्छी बहू के लिए जरूरी है कि / लाश खूबसूरत हो, जवान हो / और सबसे अहम बात है कि वह कुँआरी हो … आखिर हम उसकी मुँहमांगी कीमत दे रहे हैं! … पर लिपू, कारोबार में क्या सिर्फ मुनाफ़ा देखा जाता है / और कुछ नहीं, कुछ भी नहीं!' बांगलादेश में घटी एक घटना पर, जिसमें बलात्कार की शिकार एक युवती जब अपने उत्पीड़न का कोई सुबूत न दे पाई तो पुलिस ने उसे पीट - पीटकर मार डाला, उपेन्द्र चौहान ने 'हसीना' जैसी बड़ी ही मार्मिक कविता लिखी है। इस कविता को सुनने पर हसीना पर हुआ ज़ुल्म जैसे आँखों के सामने ही घटित हो रहा है, ऐसा प्रतीत होने लगता है। उसकी वेदना की सजीव अभिव्यक्ति इन पंक्तियों में देखिए, - 'कोड़े की पोर में सट रहे हैं / मांस के टुकड़े / छिटक रही हैं ख़ून की रेखाएँ / जैसे उसकी चीख से टपक रहा हो / यातना का रक्त / यही न्याय है … और मर्द गद्गद! … ख़ुदा के बन्दों पर आरोप / ख़ुदा के आरोप से बड़ा है … बहुत बड़ा … / मौला का न्याय … / सट … सट … सटाक … / छिलती चमड़ी … / नीली धारियाँ … / ख़ून के क़तरे … / आह … आह … / बेसुध हसीना … / सौवें कोड़े के बाद / सुस्त पड़े अंग - प्रत्यंग और तैर गई वह / सिर्फ अपने अंत की ओर ही नहीं … / ख़ुदा के न्याय … / उन कोड़ों के अंत की ओर भी … !'

         अफ्रीका में घाना के बोल्टा क्षेत्र में देवकोप के भय से लड़कियों को ओझाओं को सौंप दिए जाने की त्रोकोशी नामक दुर्भाग्यपूर्ण परंपरा तथा उसकी शिकार होने वाली स्त्रियों की मानसिक व शारीरिक यातनाओं का चित्रण करने वाली कविता 'त्रोकोशी' में उपेन्द्र चौहान की अभिव्यक्ति अत्यन्त विचलित कर देने वाली होते हुए भी संघर्ष करने की प्रेरणा देने वाली है, - 'तुम कहीं भाग नहीं सकती / लोहे से अधिक मजबूत हैं / उनके बंधन / किसी भी यातना से कठिन है / तुम्हारा जीवन / लोहे के बन्धन तोड़े नहीं काटे जाते हैं / …… वे तुम्हें रोकना चाहते हैं / उन शब्दों में प्रवेश से / जो रचते हैं एक और दुनिया / जहाँ कोई त्रोकोशी बन्द पड़े चाकू की तरह / खुलकर खड़ी हो सकती है।' उपेन्द्र चौहान त्रोकोशी की त्रासदी को अफ्रीका तक ही सीमित नहीं मानते। शायद उनकी निगाह भारत की देवदासी पृथा तक पर है। तभी तो उन्हें इस त्रासदी का विस्तार एशिया में भी दिखाई देता है, - ''यह किस्सा उतना ही नया है / जितना पुराना / यह किस्सा उतना ही अफ्रीका में है / जितना एशिया में।' कहने का तात्पर्य यही कि स्त्री के दमन और शोषण का यह किस्सा सार्वभौमिक एवं सार्वकालिक है और बकौल उपेन्द्र चौहान, इसीलिए, -

'पूरी दुनिया में त्रोकोशियाँ अपने बच्चों को पिला रही हैं दूध
और कह रही हैं - "बेटे! बड़े होकर कुछ याद मत करना
सिवा एक बेबस माँ की यातना के!'

        द्वितीय विश्व युद्ध के समय जापान के नागासाकी व हिरोशिमा पर हुए परमाणु बम आक्रमण से प्रभावित हुए क्षेत्र के लोगों की शारीरिक व मानसिक पीड़ाओं का मर्मस्पर्शी उल्लेख करने वाली 'साका - माची' (प्रभावित शहर का चित्रण), 'क्लॉड ईथर्ली' (परमाणु बम गिराने वाले की मन:स्थिति), 'हिबाकुशा' (परमाणु बम से प्रभावित व्यक्ति को दिया जाने वाला प्रमाण - पत्र), 'जगुआर और मैनी', 'हिरोशिमा की नदी' जैसी अनेक प्रभावशाली कविताएँ दरशाती हैं कि उपेन्द्र चौहान विश्व - व्यापी मानवीय चिन्ताओं के कवि हैं। परमाणु - बम के उपयोग के विरुद्ध लिखी गई कविता 'फुकुहारा एइजि' में उपेन्द्र चौहान अपनी चेतना के शिखर पर चढ़े दिखाई देते हैं, -

'मेरी चिन्ता पृथ्वी पर
तितली और मनुष्य को बचाए रखने की है
ताकि धड़ - पकड़ का यह कौतुक कभी ख़त्म न हो …
ख़त्म न हो यह अतुलनीय सौन्दर्य!'

       उपेन्द्र चौहान की दृष्टि स्त्री के प्रति निहायत गैर - संवेदनशील व्यवहार दिखाने वाली भारतीय व्यवस्था की तरफ भी जाती है। हम आए दिन अख़बारों में पढ़ते हैं कि राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री जैसे अति विशिष्ट व्यक्तियों के सड़क - आवागमन को सुविधाजनक व सुरक्षित बनाने के लिए पुलिस घंटों ट्राफिक ब्लॉक कर किस तरह से आम जनता को हलेकान होने के लिए मजबूर कर देती है। अपनी कविता 'रत्नाबाई काणेगावकर' में वे सता प्रतिष्ठान द्वारा आम आदमी के ऊपर ढाए जाने वाले इसी ज़ुल्म की ओर संकेत करते हैं। बिम्ब के रूप में यहाँ प्रधानमंत्री की यात्रा के रूट में फँसी प्रसव - पीड़ा से कराहती एक स्त्री है, -  'हस्पताल का प्रवेश - द्वार दिख रहा है तो क्या / अभी सुगबुगाना भी मना है / टैक्सी में बच्चा जन चुकी तो क्या / ख़ून से बुरी तरह लथपथा गई है तो क्या / जान का ख़तरा है तो क्या / एक जान की ख़ातिर / देश की सारी जानों के रखवाले का … काफ़िला निकल चुका तो क्या / जीवन और मृत्यु के बीच झूलते / उल्टियाँ करती जच्चा को देखकर / पुलिस पसीज तो नहीं सकती न!' सरकारी महकमों में बढ़ते जा रहे भ्रष्टाचार को उजागर करने वाली कविता 'लौटने लगे हैं लोग' में उपेन्द्र चौहान बाढ़ - पीड़ितों के लिए किए जाने वाले राहत - कार्यों का सारा कच्चा - चिट्ठा खोलते है। बाढ़ - पीड़ित गाँव में भ्रष्टाचार के विरुद्ध मुँह खोलना भी गुनाह है और जिसने भी मुँह खोला उसने समझो अपनी शामत बुलाई। ऐसे ही व्हिसिलब्लोवर बनने चले बेटे की जान पुलिस से छुड़ाने के लिए बाप द्वारा राहत में मिले पैसे भी सिपाही को घूस में दे देता है, - 'हार - पाछकर मुन्नर / थमाता है सिपाही जी को नोट / मुन्नर सोचता है / सी ओ साहब वाला वापस किया / सिपाही समझता है / साले ने सलामी दी।' सत्ता - प्रतिष्ठान का निष्ठुर व्यवहार और राजनीति का विभाजनकारी स्वरूप मनुष्यों को ही नहीं, प्रकृति तक को वेदना से भर देता है। हमारे यहाँ देश के विभाजन पर बहुत कुछ लिखा गया है। किन्तु उपेन्द्र चौहान ने संवेदना की जिस दृष्टि के साथ सीमा - रेखा पर बहती नदी की पीड़ा को अपनी 'नदी अब भी बहती है' शीर्षक कविता की इन पंक्तियों में अभिव्यक्त किया है, वह हमें बहुत गहराई तक व्यथित कर देता है, -

'यद्यपि अब भी पुकारती है अपने बच्चों को
कि आओ! डुबी - डुबी खेलो मेरे सीने पर
सीखो तैरना
उसे क्या पता कि
उसकी आत्मा के ठीक पास खींची गई है
दो देशों की विभाजन - रेखा
जिसकी सुरक्षा के लिए तैनात हैं लौह - संतरी!'

सक्रिय राजनीति में होने के कारण उपेन्द्र चौहान की कविताओं में भारत के वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य का अक्स उभरना ही था। 'पक रहा है लोहा' कविता में उन्होंने राजनीतिक कार्यकर्ताओं की मौजूदा स्थिति का विश्लेषण करते हुए राजनेताओं एवं कार्यकताओं के बीच के अन्तर्सम्बन्धों को बड़े ही यथार्थपरक ढंग से उजागर किया है। यह काम शायद वही कवि कर सकता था जो राजनीति के भीतर धँसा हो। हाशिए पर बैठा कवि इसे उतनी सूक्ष्मता से देख ही नहीं सकता, जितनी सूक्ष्मता से उपेन्द्र चौहान ने देखा है। राजनेता के विकास के सच को उन्होंने इस कविता में बड़े ही खरे - खरे शब्दों में नंगा किया है, - 'जो रुक गया वह नेता हो गया! जो झुक गया वह नेता हो गया! जिसने समझौता कर लिया वह नेता हो गया! जिसने पक्षधरता छोड़ दी वह नेता हो गया! जो सत्य, धर्म और ईमान छोड़ सकता है/ असल में वही हो सकता है नेता!' राजनेता अपने कार्यकताओं को किस तरह से बरगलाता है, उनका इस्तेमाल करता है और उनके बल पर किस तरह से ऐश करता है, इसका बड़ा सशक्त चित्रण हुआ है इस कविता में, -  'हर जगह लड़ रहे हैं कार्यकर्ता / मर रहे हैं कार्यकर्ता / उनके ख़ून से अभी तक माटी में है ललाई / नेता बन रहे ख़ून - सोख़्ता! ख़ून की लाली से अपने चेहरे पर / बिखेरे हैं रौनक!' लेकिन यह सब देखने - समझने के बाद भी उपेन्द्र चौहान निराश नहीं है। उन्हें कार्यकताओं के संघर्ष की सच्चाई पर भरोसा है। तभी तो वे कहते हैं, -

'लेकिन इधर सुनने में आ रहा है कि
इस ढलती उम्र में अभी तक
जो रह गए हैं केवल कार्यकर्ता
उन्हीं के संघर्ष से कहीं पक रहा है लोहा
और बन रहे हैं औज़ार
और हो रही है तैयारी किसी युद्ध की!'


मुझे पूरी उम्मीद है कि उपेन्द्र चौहान की कविताओं का यह संकलन लोगों को सिर्फ पसन्द ही नहीं आएगा, उनके मन में कहीं न कहीं आज के हालातों को बदलने का एक विचार भी भरेगा। मुझे यह भी विश्वास है कि उपेन्द्र चौहान जैसा जीवट व अन्तर्दृष्टि वाला कवि कभी भी राजनीति व सता के दलदल में फँसकर अपने को खो नहीं देगा नहीं और अपनी कविताओं के माध्यम से निरन्तर विचारों की रोशनी फैलाता रहेगा। विचार गुस्से से ज्यादा ख़तरनाक होते हैं यह मानने वाला कवि, जब विचारों को हथियार बनाकर राजनीति में आगे बढ़ेगा तो उससे कविता और राजनीति दोनों का अतिशय भला होगा। मेरी शुभेच्छा है कि कवि व राजनीतिक कार्यकर्ता के रूप में उपेन्द्र चौहान के साथ ऐसा ही हो। 

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